रविवार, 5 अप्रैल 2009

ता.... ता.... थईया


हम हिंदी रंगमंच पर किसी नाटक का मंचन देखते है तो हम अक्सर मंच पर अभिनय कर रहे अभिनेता को पहचानते है या फिर नाटक के निर्देशक को परन्तु हमेशा हमसे एक नाम छुट जाता वो हैं नाटक के बाहर से नाटक को मंचन कराने के लिए उठे हाथ वो हाथ जो न तो अभिनेता है, न ही निर्देशक न ही दर्शक परन्तु मंचन का सारा जिम्मेवारी उनके कन्धों पर होता है और उस दायित्व का सफल निर्वाह करते है प्रस्तुति नियंत्रक, जिनका प्रयास किसी नाटक के मंचन को सफल बनाता है, अगर हम रांची रंगमंच की बात करे तो हाल के दिनों में उभर कर रंगमंच की ज्योति के रूप में ज्योति बजाज का नाम आता है जिनके प्रयास से ४ अप्रैल से ७ अप्रैल तक इंटरनेशनल लाइब्रेरी एंड कल्चरल सेंटर,रांची के द्वारा मुक्ताकाशी मंच,इंटरनेशनल लाइब्रेरी एंड कल्चरल सेंटर, क्लब रोड, रांची में सुनील रा के निर्देशन में नाटक "ता.... ता.... थईया" का सफल मंचन किया गया. नाटक मूल रूप से नाटककार दया प्रकाश सिन्हा रचित सीढियाँ का एकांकी रूप है जिसमे दर्शाया गया है की कैसे एक आम व्यक्ति ब्यवस्था के साथ पिसाता हुआ खुद उसी के रंग में रंग जाता है सुकरा एक ऐसा ही चरित्र है जो हवेली की चौकीदार की नौकरी पाना चाहता है क्योंकि हवेली की चौकीदारी उसकी इच्छा की पूर्ति कर देगा, हवेली में हमेशा रास-रंग होता है, हवेली का ज़मींदार रशिक एवं घाघ है उसकी नज़र शहर की नामी कोठेवाली उधमबाई पर है और उधमबाई की नज़र हवेली पर,ज़मींदार उधमबाई से शादी कर लेता है हवेली अब उधमबाई के इशारों पर नाचती है उधमबाई का भाई मानसिंह जो वास्तव में भडूवा है ज़मींदारी हासिल कर लेता है एय्यास थानेदार कोठेवालियों की स्वाद से थक चूका है वह किसी नए स्वाद को चाहता है और सुकरा की अति महत्वकांक्षा,चौकीदारी की नौकरी की चाह में अपनी प्रेमिका चांदो को ज़बरदस्ती एक रात के लिए थानेदार को सुपुर्द कर देता है कि चौकीदारी की नौकरी मिल जायेगी चांदो से
वह शादी कर लेगा सब ठीक हो जायेगा. नाटक बताता है की किस प्रकार एक व्यक्ति अपनी अति महत्वकांक्षा में खुद को कब गलत रास्ते पर ले जाता है उसे खुद ही पता नहीं चलता बस वह संतोष करके रहता है की गलती सुधार लेगा और गलतियाँ करता रहता है. नाटक में अभिनय पक्ष में सुकरा की भूमिका में अजित कुमार श्रीवास्तव चांदो की भूमिका में सोनिया मिश्रा, उधमबाई की भूमिका में बबली,थानेदार प्रदीप ठाकुर,पारों ऋतू कमल, ज़मींदार राजीव चद्र,बाबा अमरेन्द्र कुमार, मान सिंह जीतेन्द्र मिश्र, दोस्त की भूमिका में सुमित कुमार थे, निर्देशन एवं परिकल्पना सुनील राय की थी मंच के पार्श्व संगीत धर्मेन्द्र की रूप-सज्जा दीपक चौधरी की एवं प्रस्तुति नियंत्रक ज्योति बजाज थी. नाटक का मंचन शहर के वरिष्ठ रंगकर्मी सुरेन्द्र शर्मा को श्रद्धांजलि के रूप में अर्पित किया गया

5 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छे विचार हैं। पड़कर अच्छा लगा

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  2. suraj jee, ye bhee un viraasaton mein se ek hai jinhein ham kahin na kahin khote jaa rahe hain aapkaa aalekh padh kar achha laga.

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  3. जब नाटककार ब्लोगर बन जाए.....!!
    ..........सूरज जी,सबसे पहले मैं आपको बधाई देता हूँ रंगमंच पर आधारित इस ब्लाग को शुरू करने के लिए....तथा कामना करता हूँ इस ब्लाग की चहुंमुखी उन्नति के लिए....यह ब्लाग उसी तरह प्रकाशमान हो....जैसा कि आप अपने खिलते हुए दिनों में नाटकों में थे....!!आपके ब्लॉग में मैं भी जल्द ही अपना योगदान करूँगा...अपने भूले-बिसरे दिनों को याद करके....लेकिन मेरी एक प्रार्थना है आपसे....क्यों ना आप एक धमाकेदार नाटक ही कर डालें.....बेशक आपके भीतर का कलाकार अब तक मरा तो नहीं होगा....अभी इसी वक्त मेरी आपसे विनती है....कि कल इस टिपण्णी को पाते ही एक नाटक शुरू करें.....रिहर्सल का स्थान तय करें....स्क्रिप्ट बिलकुल तैयार है.....एक कलाकार मैं खुद हूँ....खूब बनेगी जोड़ी....आपकी और मेरी...."नाटक नहीं "को याद करें....!!

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