बुधवार, 15 जुलाई 2009

'कहाँ हो परशुराम'


पिछले दिनों रांची में 'कहाँ हो परशुराम' नामक नाटक का मंचन रांची की नाट्य संस्था हस्ताक्षर के द्वारा किया गया जिसकी
तस्वीरे आप देखें


रविवार, 24 मई 2009

बाल नाटक

बाल नाटकों की कमी अक्सर हिंदी नाट्य जगत में देखने को मिलती है और कई बार ऐसा महसूस होता है की हिंदी में बाल नाटको को लिखने के प्रति नाट्यकारों ने ध्यान कम दिया है वैसे विनोद रस्तोगी एवं अन्य नाट्यकारों के द्वारा कई बाल नाटक लिखे गए है परन्तु आज वक़्त बालमन को नाटकों से जोड़ वर्तमान प्रस्तिथियों की नवीनतम जानकारी देने का भी है यदि हम बालमन को कुछ अलग-अलग उनके उम्र के बदती जिज्ञासाओं के अनुसार बाँट कर उनके अनुसार नाटकों को लिखें या फिर नाट्य-कार्यशाला के द्वारा नाटकों का उन्ही बालमन के साथ खेल-खेल में लिख डाले और उनका नाट्य मंचन करें तो नाटक बालमन के अनुरूप होने के साथ-साथ नाटक की गहराई को महसूस करता है इस प्रकार के नाटकों के निर्माण में दो तरह के फायदे नज़र आते है एक तो बाल नाटक मंचन होते है साथ ही रंगमंच की नई पौध तैयार होती है जो भविष्य के रंगकर्मी होंगे मेरा मानना है की रंगमंच सिर्फ नाटकों के मंचन का ही नाम नहीं बल्कि व्यक्तित्व के निर्माण का नाम है जो अघोषित रूप से नाट्य मंचन के पूर्वाभ्यास के दौरान कलाकार खुद बा खुद ग्रहण करता रहता है बाल नाटकों के कार्यशाला या फिर यूँ कहें की नाटकों को लेकर हुए कार्यशाला में तैयार तो अच्छे नाटक होते है परन्तु उन नाटकों के पुनर्मंचन नहीं होने के कारण उनका प्रसार नहीं हो पता जिसके कारण कई अच्छे नाटकों का, अच्छी स्क्रिप्ट का अकाल मृत्यु हो जाता है या फिर हम इस प्रकार कह सकते है की उन नाटकों को तैयार करने में लगी एनर्जी चन्द वाह-वाही के बाद ख़त्म हो जाती है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी इस एनर्जी को बाँटने के लिए सबसे ज्यादा ज़रूरी तैयार नाटक के स्क्रिप्ट को किसी भी तरह छपाया जाए उसका ज्यादा से ज्यादा प्रति नाट्य प्रेमियों के बीच वितरित कर नाट्य आन्दोलन को आगे बढाना चाहिए स्क्रिप्ट बैंक का निर्माण कर रंगकर्मियों को आपस में जुड़ना चाहिए ताकि नाटक,रंगमंच का विकास `हो

बुधवार, 20 मई 2009

स्त्रीमन का मंचन

क्या आपने कभी किसी अभिनय कर रहे नाटक के पात्र के आंखों में उस वक्त झांक कर देखा है जब वह किसी पात्र को जीता है ,जब वह संवाद संप्रेसन करता है,संवादों को ,शब्दों को उसके अनुरूप उच्चारण करता है तब मानो शब्द जी उठते है उनके संवाद का एक-एक शब्द चित्र बन कर हमारे सामने उभर पड़ते है वह अभिनेता या अभिनेत्री उस वक्त अपनी वास्तविकता भूल जाता है नाटक के पात्र का आवरण उसके ऊपर हावी रहता है ....किसी अभिनेता या अभिनेत्री के द्वारा पात्रों को जीना कोई आसान काम नहीं परन्तु नाटक देखते वक्त ऐसा महसूस होता है की अभिनय बड़ी सरलता से किया जाने वाला काम है जो कोई भी कर सकता है पर वास्तविकता ये नही है अभिनय कड़ी मेहनत का नतीजा है जिस पर किसी प्रकार की लापरवाही उसकी मेहनत पर पानी फेर सकता है। रांची में रंगकर्मी एवं निर्देशक अजय मलकानी के निर्देशन में 'स्त्रीमन' एकल अभिनय का मंचन आज मेकन स्थित कला भवन में हुआ जिसमे एकल अभिनय मधु राय के द्वारा किया गया । मधु राय एक सधी हुई अभिनेत्री है जिसके कुशल अभिनय ने दर्शकों को बांधे रखा।स्त्रीमन में स्त्री के पात्र को जीते वक्त मधु राय के आँखों में , संवादों में ,संवाद के उच्चारण की गति उसकी भाव-भंगिमा देखने लायक थी। इस प्रस्तुति के लिए अजय मलकानी एवं मधु राय धन्यवाद् के पात्र है।





शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

रंगमंच


क्या रंगमंच सिनेमा के गलियारे की पहली सीढ़ी है यह प्रश्न कुछेक दशक पुर्व तक रंगकर्मियों के बीच चर्चा का विषय रहा और वास्तु स्तिथि ये थी की रंगमंच का इस्तेमाल सिनेमा की ख्वाहिस को पूरा करने का जरिया बन चूका था ज्यादातर लोग जो रंगमंच खास कर हिंदी रंगमंच से जुड़ रहे थे उनमे रंगमंच के प्रति ठहराव नहीं था ये सभी रंगकर्मियों पर लागु नहीं होता परन्तु ज्यादातर संख्या ऐसे ही की रही है, यही कारण रहा की रंगमंच पर लोग आते गए अपनी कुछेक उपस्तिथि नाटकों के माध्यम दर्ज करते रहे परन्तु रंगमंच को एक उच्चाई पर नहीं ले जा सके रंगमंच,नाटक उनके रुपहले परदे पर पहुचने का सपना बन बिखरता गया ऐसे कई रंगकर्मी रुपहले परदे पर तो नहीं आ सके परन्तु उनका रुपहले परदे पर पहुँचने का संघर्ष, ठोकरें रंगमंच को नुकसान पहुचाती रही आज भी रंगमंच पर ये चर्चा का विषय है परन्तु मेरा मानना है की कुछेक समय पूर्व रंगमंच सिनेमा तक पहुँच का जरिया हुआ करता होगा परन्तु आज के संदर्भ में यह बात गलत साबित होती है खास कर जबसे चैनलों में सीरियलों का आगमन हुआ है क्योंकि सीरियलों में अभिनय कही दिखाई नहीं देता दिखाई देता है तो सिर्फ चिकने चुपड़े चेहरे बड़े भव्य सेट दृश्यों के कई एंगल से लिए गये दृश्यों की पुनरावृति, तेज़ म्यूजिक जो आपका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेती है किसी भी सीरियल से आपके अंदर के कलाकार के अभिनय का भूख ख़त्म नहीं हो सकता बल्कि वह आपके अभिनय का स्तर ही ख़त्म कर सकता है. रंगमंच वास्तव में आपका बौद्धिक विकाश करता है जिस हम चर्चा फिर कभी करेंगे मेरा ऐसे लोगों से अनुरोध होगा जो रंगमंच को सीढ़ी की तरह उपयोग करना चाहते, मत करें क्योंकि रंगमंच सिर्फ रंगमंच है ये आपका व्यक्तित्व विकास कर सकता है रंगमंच का उपयोग सिर्फ और सिर्फ रंगमंच के लिए करे .

रविवार, 5 अप्रैल 2009

ता.... ता.... थईया


हम हिंदी रंगमंच पर किसी नाटक का मंचन देखते है तो हम अक्सर मंच पर अभिनय कर रहे अभिनेता को पहचानते है या फिर नाटक के निर्देशक को परन्तु हमेशा हमसे एक नाम छुट जाता वो हैं नाटक के बाहर से नाटक को मंचन कराने के लिए उठे हाथ वो हाथ जो न तो अभिनेता है, न ही निर्देशक न ही दर्शक परन्तु मंचन का सारा जिम्मेवारी उनके कन्धों पर होता है और उस दायित्व का सफल निर्वाह करते है प्रस्तुति नियंत्रक, जिनका प्रयास किसी नाटक के मंचन को सफल बनाता है, अगर हम रांची रंगमंच की बात करे तो हाल के दिनों में उभर कर रंगमंच की ज्योति के रूप में ज्योति बजाज का नाम आता है जिनके प्रयास से ४ अप्रैल से ७ अप्रैल तक इंटरनेशनल लाइब्रेरी एंड कल्चरल सेंटर,रांची के द्वारा मुक्ताकाशी मंच,इंटरनेशनल लाइब्रेरी एंड कल्चरल सेंटर, क्लब रोड, रांची में सुनील रा के निर्देशन में नाटक "ता.... ता.... थईया" का सफल मंचन किया गया. नाटक मूल रूप से नाटककार दया प्रकाश सिन्हा रचित सीढियाँ का एकांकी रूप है जिसमे दर्शाया गया है की कैसे एक आम व्यक्ति ब्यवस्था के साथ पिसाता हुआ खुद उसी के रंग में रंग जाता है सुकरा एक ऐसा ही चरित्र है जो हवेली की चौकीदार की नौकरी पाना चाहता है क्योंकि हवेली की चौकीदारी उसकी इच्छा की पूर्ति कर देगा, हवेली में हमेशा रास-रंग होता है, हवेली का ज़मींदार रशिक एवं घाघ है उसकी नज़र शहर की नामी कोठेवाली उधमबाई पर है और उधमबाई की नज़र हवेली पर,ज़मींदार उधमबाई से शादी कर लेता है हवेली अब उधमबाई के इशारों पर नाचती है उधमबाई का भाई मानसिंह जो वास्तव में भडूवा है ज़मींदारी हासिल कर लेता है एय्यास थानेदार कोठेवालियों की स्वाद से थक चूका है वह किसी नए स्वाद को चाहता है और सुकरा की अति महत्वकांक्षा,चौकीदारी की नौकरी की चाह में अपनी प्रेमिका चांदो को ज़बरदस्ती एक रात के लिए थानेदार को सुपुर्द कर देता है कि चौकीदारी की नौकरी मिल जायेगी चांदो से
वह शादी कर लेगा सब ठीक हो जायेगा. नाटक बताता है की किस प्रकार एक व्यक्ति अपनी अति महत्वकांक्षा में खुद को कब गलत रास्ते पर ले जाता है उसे खुद ही पता नहीं चलता बस वह संतोष करके रहता है की गलती सुधार लेगा और गलतियाँ करता रहता है. नाटक में अभिनय पक्ष में सुकरा की भूमिका में अजित कुमार श्रीवास्तव चांदो की भूमिका में सोनिया मिश्रा, उधमबाई की भूमिका में बबली,थानेदार प्रदीप ठाकुर,पारों ऋतू कमल, ज़मींदार राजीव चद्र,बाबा अमरेन्द्र कुमार, मान सिंह जीतेन्द्र मिश्र, दोस्त की भूमिका में सुमित कुमार थे, निर्देशन एवं परिकल्पना सुनील राय की थी मंच के पार्श्व संगीत धर्मेन्द्र की रूप-सज्जा दीपक चौधरी की एवं प्रस्तुति नियंत्रक ज्योति बजाज थी. नाटक का मंचन शहर के वरिष्ठ रंगकर्मी सुरेन्द्र शर्मा को श्रद्धांजलि के रूप में अर्पित किया गया

मंगलवार, 31 मार्च 2009

महोत्सव के तीसरे दिन

जमशेदपुर थियेटर एसोसिएसन, जमशेदपुर के नाट्य महोत्सव के तीसरे दिन नाट्य संस्था 'निशान' की प्रस्तुति देवाशीष मजुमदार रचित नाटक "ताम्रपत्र" का मंचन श्याम कुमार के निर्देशन में हुआ. ताम्रपत्र एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो गरीबी से तंग आकर वो बेटे को नौकरी लग जाये की लालच वो बहकावे में आकर छद्म स्वतंत्रता सेनानी बन ताम्रपत्र हासिल कर लेता है और खुद को स्वतंत्रता सेनानी ही समझता है उसके अनुरूप उसकी सोच होती है वैसा ही काम करता है परन्तु अपने नकली स्वतंत्रता सेनानी होने बोझ सहन नहीं कर पता है उसकी अंतरात्मा उसे कचोटती है और अंत में अपनी आत्मा की आवाज़ पे वह ताम्रपत्र लौटा देता है. नाटक के मुख्य भूमिका में श्याम कुमार, दर्शाना, ज्योत्स्ना सिंह, बबन शुक्ल, राजेश कुमार थे. महोत्सव की तीसरी संध्या की दूसरी एवं अंतिम प्रस्तुति मुन्सी प्रेमचंद की अमर कहानी कफ़न का बंगला नाट्य रूपांतर चन्दन चन्द्र के निर्देशन में 'रिभव' के द्वारा किया गया. भूख और उससे होनी वाली त्रासदी, रिश्तो से ऊपर भूख की महाछाया और उसका निवारण के लिए मनुष्य का सामाजिक दायित्व का लुप्त होना इसका काफी अच्छा नाट्य प्रदर्शन 'रिभव' के कलाकारों के द्वारा किया गया. घीसू की भूमिका चन्दन चन्द्र, बेटा की भूमिका में प्रवीर चटर्जी एवं ग्रामवासी अमित कुमार दास थे.

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

जमशेदपुर में नाट्योंत्सव

विश्व रंगमंच दिवस के अवसर पर 'जमशेदपुर थियेटर एशोसियेसन,जमशेदपुर ' के द्वारा नाट्योंत्सव का आयोजन 27,28,29 मार्च को किया जा रहा है जिसके प्रथम दिवस नाट्य संस्था 'पथ' की प्रस्तुति विजय तेंदुलकर लिखित एवं मो० निजाम निर्देशित 'कन्यादान' का मंचन किया जायेगा। 28 मार्च को दक्षिण भारतीय महिला समाज के द्वारा नाटक 'अमावस्या आई।ए।एस।' एवं 29 मार्च को नाटक नाट्य संस्था 'निशान' के द्वारा देवाशीष मजुमदार लिखित एवं श्याम कुमार द्वारा निर्देशित 'ताम्रपत्र' तथा नाट्य संस्था 'कला' की प्रस्तुति प्रेमचंद की कहानी 'कफ़न' का मंचन बंगला भाषा में चन्दन चन्द्र के निर्देशन में किया जायेगा
महोत्सव में २७ मार्च को विजय तेंदुलकर रचित मराठी नाटक 'कन्यादान' का हिंदी रूपांतर मो० निजाम के निर्देशन में मिलानी हॉल, जमशेदपुर में किया गया ,नाटक की कथावस्तु मनुष्य का मनुष्य पर खुद को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश एवं उच्च वर्ग तथा निम्न वर्ग की कहानी है, जिसका सफलता पूर्वक मंचन नाट्य संस्था 'पथ' के कलाकारों अभिषेक कुमार, नुरुल अमिन, एन. राय के द्वारा किया गया. इसी दिन बंगला नाटक 'आहा रे मोरंग' का मंचन वाई. के. इ.सुरेश के निर्देशन में किया गया. नाटक की कहानी काफी इंट्रेस्टिंग है अपनी प्रेमिका को चाहने और उसे पाने की लालच में बेटा अपने पिता को मरना चाहता है क्योंकि पिता के नाम इन्सुरेंस है जिसके मरने पर पैसो का भुगतान बेटा को होगा अंत में पिता परेशान होकर आत्महत्या कर लेता है .... 28 मार्च को दक्षिण भारतीय महिला समाज, जमशेदपुर की प्रस्तुति अमावस्या आई. ई.एस.रही जिसके लेखक एवं निर्देशक लक्ष्मी वरदराजन थी नाटक महिला शिक्षा,सामाजिक पर आधारित था नाटक में मुख्य किरदारों में एम्. सी. एस. शिवा, गौरी शिवा, दर्शाना,आनंद,स्विश, ए. आर. गोपाल, आर.जयंती, बालाकृष्णन, रामचंद्रन, प्रिय नागराजन, लावण्या..... आदि थे नाटक की प्रस्तुति सराहनीय रही.

रंगकर्म और रंगकर्मी


एक प्रेक्षागृह के अन्दर एकदम अँधेरा ...उस अँधेरे में धीरे-धीरे एक वृत्त दायरे में आता प्रकाश ....उस प्रकाश के साथ कानों में सुने देती कुछ संवाद और साथ ही दिखाई पड़ता एक जीवंत अभिनय...एक रंगकर्मी जो मंच पर किसी पात्र को जी रहा है ..वह रंगकर्मी उस पात्र को जीवित कर देता है आपकी आँखे बस उस दृश्य की ओर ठहर जाती है और आप उस रंगकर्मी के साथ उस नाटक के एक पात्र हो जाते है ...आप महसूस करते है की प्रेक्षागृह में दिखाया जाने वाला नाटक वास्तव में नाटक नहीं आपकी ही जिंदगी का एक हिस्सा है ..आपकी रोजमर्रा के किर्या-कलापों का एक हिस्सा ..जिसमे आप कभी हँसते है कभी नीरस होते है तो कभी गुस्से में झुंझला जाते है ..कभी आप जिंदगी से हार मन जाते है तो कभी जिंदगी को आप एक नई दिशा देते है ..एक रंगकर्मी ..रंगकर्म करते हुए क्या सोचता है ..एक रंगकर्मी के परिवार के लोग उसके पीछे क्या सोचते हैं .. विपरीत परिस्तिथियों में लड़ता रंगकर्मी खुद आपनी ही लडाई किस प्रकार लड़ता है ...क्या एक रंगकर्मी की राह उसके मंजिल तक की सफ़र होती है या फिर रंगकर्मी किसी चौराहे पर खडा हो आपनी ही राह भटक जाता है.... ये कई प्रश्न हैं .. जिन प्रश्नों से आपका कोई नाता नहीं है पर रंगकर्मियों के बीच ये उनकी मर्यादा और अस्तित्व की बात है या फिर कहे की ये एक लडाई है जिसमे जीत भी रंगकर्मी की होती है हार भी रंगकर्मी की ही होती है ..रंगकर्म गाँवों से लेकर महानगरों तक सभी ज़गह होती है हर कोई आपनी वजूद की लडाई अपने स्तर से लड़ता है ...अगर मैं सही कहूँ तो रंगकर्म एक विचार है ,रंगकर्म एक जुनून है इस संसार में ज़न्म लिया हुआ प्रत्येक व्यक्ति रंगकर्मी है जो अपनी इच्छा व्यक्त करता है उसकी प्रतिक्रया व्यक्त करता है ..हम सभी संसार रूपी रंगमंच के एक पात्र है जो आपनी भूमिका खुद निभाते है ...ये ब्लॉग साझा है इसमें शामिल हो....रंगकर्म जो आपके क्षेत्र में हो रहा हो .. आपके शहर का रंगकर्मी नाट्य- निर्देशक, लेखक सभी की जानकारी दे...... रंगमंच पर अपने विचार दे ..लिखे.....मिले ..इसे पढ़े ..अपने विचार दे ........ विश्व रंगमंच दिवस एवं वर्ष प्रतिपदा पर आप सभी को शुभकामनायें!